
ज़र्द और सुरमई एक शाम की तारीकी में
खुद से शरमाई हुई रौशनी के दामन में
आसमां के सभी तारे भी पशेमान से थे
अपने चेहरों को नकाबों में छिपाए से थे
अपनी गैरत को भुला कर भी बहुत फख्र में था
आसमान दूर तलक फैला देव-पैकर सा
बरहना जिस्म खुली बाँहों से दावत देता
चाँद को खिलने पे उकसाता सा बहलाता सा
हवा खामोश थी ऐसे जैसे कोई नगमा खामोश
जैसे वाकिफ हो कि धरती का समां है कैसा
जैसे गुमनाम गुनाहों से पटी हो धरती
दूर तक खून पसीने में सनी हो धरती
अश्क के एक समंदर में दबी हो धरती
शब् की तारीकी में कुछ राज़ लिए हो धरती
हामेला पेट में भी भूक के साये लरज़ाँ
अधखुले जिस्म में बच्चों की दर्दमंद ज़बां
चाँद से जिस्म ज़िनाकारों कि जब भेंट चढ़े
घर पे खाविंद न था जो कि कोई आह सुने
गोधरा आग में लिपटा तो लपट फ़ैल गयी
बामियाँ बुद्ध के आंसू में सराबोर हुई
इन्तेकाम आग में बारूद में पैकर ले कर
कितने अनजान फरिश्तों के जवां सीने पर
मौत बन कर जो गिरे उसकी कहानी न बनी
कितने बचपन थे कि फिर उनकी जवानी न पली
रेलगाड़ी में जो बारूद का अम्बार गिरा
कितनी ही कोख जली कौन मरा क्या है पता
जिंदगी है कि कभी सह न सकी अपनी शिकस्त
सारे मंझधार से तूफानों से भी टकरा कर
कोख जो माँ की थी, फितरत की थी, जीवन की थी
माँ थी वह धरती पे पलते हुए इंसानों की
कोई बेटा कोई वालिद कोई रहबर कि सिपाही कोई
कोख में पलते हैं और उस से जनम लेते हैं
कोख बस कोख नहीं माँ है और उसका है सवाल
कब तलक कोख जलेगी यह समझना है मुहाल
सालेहा साल की तारीख भी कैसी तारीख
वही बेरंग से किस्से वही उलझी तारीख
ठंडी बारिश न उम्मीद न सूरज कि किरण
कोई खुर्शीद संवारेगा कभी सुबह कि ज़ुल्फ़
या कि फिर गर्क अंधेरों में रहेगी हर सुब्ह
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